संत कबीर दास जी 15वीं शताब्दी के एक महान संत, कवि और समाज सुधारक थे, जिनका जन्म वाराणसी (काशी) में हुआ माना जाता है। उनके जन्म के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं, परंतु यह सर्वमान्य है कि उनका पालन-पोषण एक मुसलमान जुलाहा दंपत्ति, नीरो और नीमा ने किया। उन्होंने बचपन से ही सादगीपूर्ण जीवन अपनाया और बुनाई का कार्य करते हुए ईश्वर की भक्ति में लीन रहे। कबीर दास जी ने किसी औपचारिक शिक्षा की प्राप्ति नहीं की, फिर भी उनके विचार अत्यंत गहन और दार्शनिक थे। कहा जाता है कि उन्होंने संत रामानंद से “राम” मंत्र प्राप्त किया और उन्हें ही अपना गुरु स्वीकार किया। उनके अनुसार ईश्वर एक है और वही हर हृदय में विद्यमान है। उन्होंने समाज में फैले जाति-पात, धार्मिक पाखंड और मूर्तिपूजा का विरोध किया। वे न तो केवल हिंदू धर्म के अनुयायी थे और न ही इस्लाम के, बल्कि वे सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक थे। कबीर के दोहे सरल भाषा में गहरे अर्थ प्रकट करते हैं। उन्होंने कहा — “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।” उनके अनुसार सच्चा ज्ञान पुस्तकों में नहीं, बल्कि प्रेम, भक्ति और सत्य के अनुभव में निहित है। उन्होंने कहा कि मनुष्य को बाहरी दिखावे के बजाय अपने भीतर झांकना चाहिए — “बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय, जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।” कबीर का संदेश प्रेम, समानता, सत्य और ईश्वर-भक्ति पर आधारित है। उनका जीवन और उनकी वाणी आज भी मानवता के लिए मार्गदर्शक है। उनके अनुयायी आज भी “कबीर पंथ” के रूप में उनकी शिक्षाओं का प्रचार करते हैं। कबीर दास जी ने समाज को यह सिखाया कि ईश्वर मंदिर या मस्जिद में नहीं, बल्कि प्रत्येक मनुष्य के हृदय में बसता है।
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